‘‘हमारे समय में’’: जनसांख्यिकी समालोचन में पीढ़ी की विशेषता
“हमारे समय में सब कुछ गड़बड़ हो गया”, हिमालयी प्रदेश उत्तराखण्ड के बागेश्वर ज़िले के टैक्सी स्टैण्ड पर खड़े पन्त ने मुझे बतलाया। ‘‘पहले उन्होंने बी.टी.सी. (बेसिक ट्रेनिंग सर्टिफिकेट) परीक्षा थोप दी और उसके बाद आरक्षण[1]”। पन्त ने अपनी स्कूल शिक्षा 1980 के आखिरी दशक में उत्तरी भारत के एक छोटे हिमालयी कस्बे में पूरी की थी। जब मैंने उन से 2017 में बातचीत करी, वह तब भी अपनी भावी और पूर्व जीविका में आने वाली दो अड़चनों का रोना रो रहे थे – पहली, प्राथमिक विद्यालय में सहायक शिक्षक बनने के लिए बी.टी.सी. के तहत होने वाली नई परीक्षाएं जो इस क्षेत्र में बहुत ही प्रतिष्ठित नौकरी है, और दूसरी 1990 में सरकारी नौकरियों पर लागू हुए आरक्षण की नीति। अब वह एक टैक्सी मालिक एवम् चालक है। पन्त के लिए वो गड़बड़ाया हुआ हमारा समय ऐसा समय बन चुका है, जिसमें वह आज भी जी रहे हैं।
जल्द ही, मैं पन्त की हर बात के साथ प्रकट होने वाली नाक-भौं की सिकुड़न से भी परिचित हो गई। एक बार फिर नाक-भौं सिकोड़ते हुए उन्होंने कहा ‘‘हमारी पीढ़ी ने बहुत झेला, हम जैसे लोगों ने बहुत झेला, आरक्षण की वजह से हम सरकारी नौकरियों से दूर रह गए और निजी नौकरियों में हम जैसे लोगों के लिए कोई जगह ही नही थी।’’ सर्वप्रथम सर्वनाम का जिस प्रकार से पन्त दोहरा दोहरा कर इस्तेमाल कर रहे थे – उसके द्वारा वह अपनी जैसी सामाजिक अवस्था में और अपने जैसे कुलनाम सूचक लोगों को अपने समय में पिरो रहे थे – वह अन्य उच्च जातिधारी कुमाँऊनी ब्राहमण। ‘‘कम से कम अब वह क्रीमी लेयर को तो पहचानते हैं ताकि उनकी सारी पीढियाँ आरक्षण नीति का बेमतलब फायदा नहीं उठा सकती”।1990 में मण्डल आयोग द्वारा केन्द्रीय सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़े वर्ग (ओ.बी.सी.) के लिए आरक्षण की घोषणा के उपरान्त, भारत के उच्च न्यायालय में उसको चुनौती देने के लिए कई रिट याचिकायें दायर हुईं। 1992 में पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण को बरकरार रखते हुए न्यायालय ने उनकी ‘क्रीमी लेयर’ को आरक्षण की दावेदारी से अलग कर दिया। इस क्रीमी लेयर की परिभाषा समपत्ति, आय एवम् सामाजिक पद के आधार पर तय करी गई। भले ही सीधे तौर पर नही, पन्त ने अन्य पिछड़े वर्ग (ओ.बी.सी.) जिनके लिए 1990 में आरक्षण का प्रावधान स्थापित किया गया, की तरफ इशारा कर ही दिया। ‘‘हम कहीं के नही रहे। आपको गोस्वामी, उस आदमी की याद है?’’
“Everything went wrong in our time”, Pant told me at a taxi stand in Bageshwar, in the Himalayan state of Uttarakhand in India. “They imposed the BTC (Basic Training Certificate) exam first and then aarakshan (reservation)”. Reservation is a catch all term for a set of affirmative actions (predominantly in public education and employment) in India for groups listed as scheduled castes, scheduled tribes and other backward classes as a means to ‘recognize the historical injustice meted out to these groups and to implement provisions by which groups would have better access to resources and opportunities that were hitherto denied to them’ (Reservations in India: A Resource Kit, EPW 2020). Pant had finished school in the late 1980s in a small Himalayan town in North India. When I spoke with him in 2017, he was still bemoaning the introduction of two impediments to his early career—a new set of exams for the BTC to qualify as an assistant primary government school teacher—a coveted public job in the region, and the introduction of reservation in public employment in India in 1990. He is now a taxi owner cum driver. Our time, for Pant, had cohered as a time that he had continued to live with.
With a signature scowl I soon became familiar with, he stated: “Our peedhi (generation) suffered, people like us (hum jaise log) suffered. We were kept out of public employment because of reservation and there was no room in private employment for people like me.” Pant’s consistent use of first-person pronouns continued to interpellate people with the same social standing as his surname conveyed–upper caste Kumaoni Brahmins. “At least, now they recognize a creamy layer so that all their generations cannot continue to take advantage of the provision (for reservation).” Consequent to the introduction of reservation for Other Backward Classes (OBC) in central government jobs in 1990 on the recommendation of the Mandal commission, several writ petitions were filed in the Indian Supreme Court to challenge it. In 1992, Supreme Court bench upheld reservation for backward classes to the exclusion of the ‘creamy layer’ which was defined by the parameters of property, income and status. Without explicitly stating so, Pant had made clear his reference to the ‘other backward classes’ to whom reservation was extended in 1990. “Hum kahin ke nahi rahe. Remember that man, Goswami?”
एक ही सांस में पन्त ने मेरे समक्ष ‘निचली जातियों’ के लिए घोषित और विवादित आरक्षण नीति का इतिहास खींच डाला, वो भी हमारे समय की कहानी के रूप में जिसमें उन्होंने कुछ आयाम बुन लिए – जिन्हें आरक्षण के तहत सरकारी नौकरियां मिली (उनकी पीढ़ी) उनको, खुद को और ‘‘कहीं के नही रहे” पाने को, और गोस्वामी को, वह विश्वविद्यालय छात्र जिसने सरकारी नौकरियों में ओ.बी.सी. आरक्षण के विरोध में आत्मदाह कर डाला।
पन्त द्वारा हमारे समय की ऐसी कहानी बताने के क्या मायने हैं? खासकर कि ऐसे, कि उसकी समकालीनता उसकी अनन्तता में परिवर्तित हो जाये? यह लघु लेख एक विशेष पीढ़ीदार होने के अनुभव और उसके साथ ही साथ उस पीढ़ी की रचना के विषय में चर्चा करने का प्रयास करता है। खासकर कि ऐसी चर्चा जिसमें पीढ़ी-सूचक पहचान की रचना कई प्रकार की सामयिकता को समेट कर एक ऐसी सांख्यिकी संज्ञा (Gokariksel, Neubert and Smith 2019) बन जाती है जो अपने समय विशेष (हमारे समय) से फैलकर सदा के लिए उपलब्ध हो जाए। पन्त पीढ़ी को दोहरी प्रकार से स्पष्ट करते हैं – हमारे समय के व्यापक और अनुप्रस्थ रूप में (सवर्ण विशेष) और दूसरे –उनकी पीढ़ी के अनुदैर्ध्य रूप में (दलित एवम् बहुजन विशेष)। सवर्ण का तात्पर्य भारत के अल्पसंख्यक परन्तु प्रभुत्वशाली अग्रिम जातियों से है जिनके पास सत्ता एवम् संसाधनों तक पहुँच समाज में उनकी रीतिगत एवम् परम्परागत उच्च स्थान के कारण स्वतः प्राप्त है। बहुजन भारत की बहुसंख्यक जनसंख्या के लिए प्रयोग किया जाता है जो भले ही संख्या में अधिक परन्तु प्रभुत्व में सवर्ण से पीछे हैं। पन्त की यह प्रस्तुति उत्तर उपनिवेशवाद और नवउदारवादी भारत में पीढ़ी विशेष पहचान पर एक सवर्ण प्रमुख प्रस्तुति की प्रतिनिधि है। उत्तराखण्ड में 2016 और 2019 में बीच शोधकार्य के दौरान मैने कई शहरों और कस्बों में सवर्ण पुरूषों से हमारे समय की कहानी सुनी और ज़्यादातर ऐसे सवर्ण पुरूषों से जो स्वयं को एक मध्यस्थ पीढ़ी के रूप में पेश करते हैं – आजाद भारत के पहले कुछ दशकों में पैदा हुई पीढ़ी और इक्कीसवी शताब्दी के भारत में पैदा हुई पीढ़ी के बीच। खुद को एक असफल कुलपति आंकने वाले यह सवर्ण पुरूष हमारा समय 1990 के उस दशक को मानते हैं जिस समय वह नौकरी, उच्च शिक्षा और जीवन अवसर ढूँढने निकले थे, वह समय जब, पन्त के अनुसारए ‘‘सब कुछ गडबड़ हो गया।’’
In one breath, Pant had laid before me the contentious history of ‘lower’ caste-based reservation in India since the 1990s, as a story of his time–interweaving those who could avail reserved public jobs (their generation), his evaluation of being left out (hum kahin ke nahin rahe) and Goswami, a university student who had self-immolated in opposition to the introduction of reservation in public employment.
What does it mean for Pant to tell a story of “our time” such that the contemporaneity of that/his time is transformed into its immutability? This essay examines the ways in which a ‘generation’ is experienced at the same time that it is produced through the harnessing of differing temporalities, particularly when that identity is reproduced through affective demographic constructs (Gokariksel, Neubert and Smith 2019) that exceed its zeitgeist–from the spirit of time to the spirit of “our time.” Pant is able to articulate generation doubly as the cross-sectional or cohort sense of our time (of the savarna) as well as the longitudinal sense of other’s (their) time (of the Dalit and the Bahujan). Savarna refers to the dominant upper caste minority in India, those who embody traditionally entitled access to structural and institutional power and resources. Bahujan (majority) is a widely used term to refer to the majority of India’s population in contrast to its minority but dominant savarna demography. Pant’s account is a savarna dominant discourse of generational identity (peedhi) in postcolonial neoliberal India. During my fieldwork between 2016 and 2019 in various town and cities in Uttarakhand, I listened to several renditions of “in our time” from savarna men who situated themselves as members of an intermediary generation–between those born in the early decades of newly independent India and those born in the twenty-first century–the in-between men who see themselves to be failed patriarchs on their own. These men “came into their time” in the 1990s–looking for jobs, higher education and life opportunities, the time when, according to Pant, everything went wrong.
जिन सवर्ण टैक्सी चालकों से मेरी बात हुई, उन में से ज़्यादातर लोगों ने हमारे समय की बात अपनी मध्यस्थ अवस्था के बारे में बात करते हुई कही – बीच में फंसे होने की भावना से। चाहे वो घर में हो या काम पर या फिर ‘‘अपने’’ समुदाय में। यह चर्चा ज़्यादातर विषाद से और आहत होने की भावना से लैस होती। जितनी बार में टैक्सी चालकों से ड्राईवरी (Joshi 2015) की बात करती, शुरूआती जवाब में मुझे हमेशा यही सुनने को मिलता कि ‘‘तब से हमारा टाईम खराब हो गया।’’ अगर 1990 के दशक के भारत की कहानी हमने ज़्यादातर उदारवाद और उसके विरोधाभासों की कहानी के रूप में सुनी है, तो हमारे समय की कहानी उस समय में उभरी सवर्ण आहत के विरोधाभास की कहानी है (Kang 2019) खासकर कि पन्त जैसों के लिए – जो अन्तर-पीढ़ी और अन्तर-जातीय न्याय पर आधारित आरक्षण नीति से खुद को आहत मानते हैं। 1990 में पन्त जैसे उच्च जाति, ‘साधारण श्रेणी’ , योग्य और व्यस्क पुरूष के लिए हमारे समय की कहानी बताने के लिए उसकी पीढ़ी – विशेष पहचान (हमारी पीढ़ी) महत्वपूर्ण है। एक ऐसी पहचान जो अन्य विशेष पहचानों को आपस में चिपका भी लेती है और छिपा भी लेती है। पन्त की पीढ़ी विशेष पहचान को उसके सामाजिक परिवेश में केंद्रित करके ही (Mannheim 1928) हम पीढ़ी गठन की भाषा को समालोचनात्मक भाव से समझ सकते हैं ताकि केवल पीढ़ी के प्रतिबिंबों को ही नहीं, उसके गठन की प्रक्रिया को भी समझ सकें (Yurchak 2006)। समय की विवेचना और उससे पन्त के समबन्ध के रूप में ‘पीढ़ी’, पन्त की आहत भावना को पुनः गठित कर उसे एक सवर्ण पहचान में विस्तारित करती है जो एक पूरी पीढ़ी की पहचान के रूप में ही स्थापित हो जाती है।
Most of the savarna men taxi-drivers who spoke to me about “our time” spoke of it in relation to their intermediary position–at home, at work and in the imagined community–with a mixture of melancholia combined with aggrievement. Tab se hamaara time kharaab ho gaya (“our time” was damaged since), several taxi drivers repeated to me, usually in response to a question about how they took to drivery (Joshi 2015). If the predominant story of the 1990s in India as we know it is the story of liberalization and its discontents, “in our time” is the story of the contradictions of the felt aggrievement (Kang 2019) with a reservation policy premised on intergenerational-intercaste justice among men like Pant. For an ‘upper caste,’ ‘general category’, able and adult male in the 1990s, the identity crucial to Pant in the telling of ‘our time’ is his generational identity (hamaari peedhi), that both congeals and obfuscates other attributes. It is in placing Pant’s generation in the milieu of its gendered and social universe i.e. by setting up the ‘problem of generations’ (Mannheim 1928) that we may be able to approach critically the ‘discourses that not only reflect generations but also contribute to their production’ (Yurchak 2006: 31). As a discourse on time, and his relationship to it, generation reproduces Pant’s aggrievement and extends it to a savarna identity that is in turn constituted as a generational identity.
पहचान बनाने में और राजनीति में भी पीढ़ी की खास जगह है। भले ही वह प्रवासी नागरिकता में पीढ़ी का अन्तर हो (पहली पीढ़ी और दूसरी पीढ़ी प्रवासी, बूमर और मिलेनियल), वातावरण से जुड़ी राजनीति हो (दीर्घकालीनता और भविष्य की पीढ़ियाँ) या नारीवादी राजनीति (नारीवाद की लहरों में समानता और अन्तर)। जहाँ पीढ़ी सम्बन्धित यह तुलना उनकी असमकालिकता पर आधारित है, जिस कालिकता की भावना से पन्त ‘आहत’ और ‘पीड़ित’ है, वह अपनी अनन्तता की धूरी पर घूमती रहती है। एक सवर्ण पुरूष के रूप में स्वः आहत होने की जिस भावना को पन्त अपनी पीढ़ी की पीड़ा बताते हैं, वह भावना आरक्षण नीति के प्रति कटुता से उत्पन्न होकर गैर-समकालिक घटनाओं को समकालिकता से जोड़ देती है। भारत में अन्तर-पीढ़ी सम्बन्धों के ज्यादातर एंथोप्रोलोजी सम्बन्धित अध्ययन उन्हें पारिवारिक परिवेश में (Trawick 1992, Cohen 1999) खासकर परिवार की अलग पीढ़ियों की महिलाओं के बीच में (Raheja and Gold 1994) या फिर उम्र और बुढ़ापे के नज़रिये से (Lamb 2000) देखते और समझते हैं। परन्तु हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि अन्तर-पीढ़ी सम्बन्धों की भाषा निजी और सार्वजनिक – दोनों ही आयामों को ऐसे घेर सकती है जिससे दोनो ही एक-दूसरे के प्रभाव से गठित हो जायें।
अनुसूचित जातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के जिन लोगों को कानूनी रूप से आरक्षित नौकरियाँ मिलीं, उन्हें पन्त द्वारा ‘‘उनकी पीढ़ियों’’ के सम्बोधन से लौकिक राजनीति के अंतरंगी आयाम में ऐसे बिठाया जाता है जिससे कि वह आसानी से पहचानी और समझी जा सकती है (Little and Winch 2017)। ‘छूट जाने’ की पीड़ा और आहत होने की भावना का सीधा सम्बन्ध पन्त अपनी अन्तर-पीढ़ी गृहस्थी के न फल-फूल पाने से जोड़ता है जो उसके अनुसार उनकी पीढ़ी में नही हो रहा है। स्वयं को बार-बार एक विफल गृहस्थ एवं कुलपति के रूप में पेश करने वाले पन्त –हम कहीं के नही रहे-से अपनी विषादपूर्ण संकट की कल्पना को अंतरंगी और सार्वजनिक दोनों ही रूप दे देता है। जैसे कि Tharu and Niranjana (1994) ने रेखांकित किया है – 1990 के विरोध प्रदर्शनों के दौरान आरक्षण विरोधी महिला प्रदर्शनकारियों ने भावी ‘‘नौकरीपेशा पतियों’’ की मांग की थी क्योंकि आरक्षण ‘‘उनके पुरूषों’’ को नौकरी से वंचित कर देता। इस मांग में उनकी स्वयं की सवर्ण पहचान भी समाहित थी। पन्त और प्रदर्शनकारी महिलाओं की पीढ़ी विवेचना बीते हुए, वर्तमान और भावी समय की कड़ियों का कुछ ऐसा एकाकीकरण और साथ ही साथ सामूहिकरण करने में सफल है कि वह इन कड़ियों की जटिलता भूल कर उनकी व्यक्तिगत विशेषताओं पर ध्यान केन्द्रित कर देता है (Surendranath 2019, Hota 2019)। हमारे समय की दावेदारी में समहित पीढ़ी विशेष परिचय ही उनके लिए एक ऐसे समय को खो देने की विरासत है, जो समय उनके लिए केवल और केवल उनका ही होना चाहिए था।
Generation is crucial to the processes of identity formation and politics whether in constituting generational immigrant identity (first generation and second-generation immigrant; boomers and millennials), in charting environmental politics (sustainability and future generations), or feminist politics (the distinct waves and corresponding departures). While these are outright articulations of the sameness and difference constituted by synchronicity and asynchronicity respectively, the suffering and aggrievement that Pant articulates pivots on its immutability. While the constitution of a generational identity is the work of both simultaneity and hindsight, the work of Pant’s continued reference to ‘in our time’ exceeds into its recurrence to all the time. While articulating his “suffering” as a savarna man of his generation, perceived as an outcome of being left out of the opportunities of public employment due to reservation, Pant reconstitutes a sense of contemporaneity with non-contemporary events. While anthropological studies of intergenerational relationships in India mostly posit them as those formed within the family (Trawick 1992; Cohen 1999) and particularly those between women of different generations (Raheja and Gold 1994) or that of aging (Lamb 2000), we cannot lose sight of the fact that the idiom of intergenerational relationships is able to straddle the intimate and the public such that one is constituted by both simultaneously.
For Pant, the identification of those who acquired jobs reserved for them by law, the ‘scheduled’ categories of Dalits and Bahujans identified as “their generation” locate ‘the intimate sphere in a temporal politics that is identifiable and recognizable’ (Little and Winch 2017). The “suffering” of being left out is linked with the failed reproduction of the intergenerational household, which Pant perceives as being sustained in their generation. His repeatedly self-articulated position as a failed householder-patriarch–hum kahin ke nahin rahe “we were not able to claim anything”–voices his melancholic rendition of a crisis that he projects as both intimate and public. As Tharu and Niranjana (1994: 99) have pointed out, during the demonstrations in 1990, anti-reservation women protesters demanded prospective ‘employed husbands’, since reservation would ‘deprive their men of employment’ revealing their savarna status. In both individualizing and collectivizing the link between the past, present and the future, Pant’s and the protesting women’s generational discourse is able to elide the complexities of such linkages by focusing on particularities (Surendranath 2019; Hota 2019). Central to the claim of ‘our time’ embedded in their generational identity is the perceived inheritance of time loss that could and should have been always and exclusively theirs.
[1] ‘आरक्षण’ उन समूची नीतियों के प्रति संकेत करता है जिसके अन्तर्गत सरकारी उच्च शिक्षा और नौकरियों में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों एवम् अन्य पिछड़े वर्गों के लिए स्थान आरक्षित किया गया है। इन नीतियों द्वारा इन समूहों के प्रति एतिहासिक अन्याय को स्वीकार करने के साथ उनको ऐसे अवसर देने का प्रयास है जिनसे उन्हें सर्वथा दूर रखा गया। अधिक सूचना के लिए देखें – https://www.epw.in/engage/debate-kits/reservations-in-india-resource-kit
References
Cohen, L. (1999) No aging in India: Alzheimer’s. the bad family and other modern things. University of California Press.
Gokariksel, B. Neubert, C. and Smith, S. (2019) ‘Demographic Fever Dreams: Fragile Masculinity, Population Politics in the Rise of the Global Right’. Signs: Journal of Women and Culture in Society 44(3): 561-587.
Hota, P. (2019) Dilution as Political Vitality: Hate Crime Legislation and Right-Wing Populism in India, PoLAR, August 13, 2019.
Joshi, B. (2015) Memes of mobility and socio-spatial transformation: ‘Drivery’ in Uttarakhand. Economic and Political Weekly 50(1):17-21.
Kang, A. (2019) ‘Misfortunes of Reservation: Exploring Savarna Affect and Victimhood’, presented at Sexing South Asia: Law, Activism and Sexual Justice Conference, O.P. Jindal Global University, Sonipat, Haryana July 17, 2019.
Lamb, S. (2000) White Saris and Sweet Mangoes: Aging, gender and body in north India. University of California Press.
Little, B. and Winch, A. (2017) ‘Generation: the politics of patriarchy and social change’, Soundings: A Journal of Politics and Culture 66:129-144.
Raheja, G.G. and Gold, A.G. (1994) Listening to the Heron’s Word: Reimagining Gender and Kinship in North India. University of California Press.
Surendranath, A. (2019) ‘The Ambiguity of Reservations for the Poor’ in The Hindu on January 22, 2019-https://www.thehindu.com/opinion/lead/the-ambiguity-of-reservations-for-the-poor/article26053843.ece.
Tharu, S. and Niranjana, T. (1994) “Problems for a Contemporary Theory of Gender.” Social Scientist, 22(3/4): 93–117.
Trawick, M. (1992) Notes on love in a tamil family. University of California Press
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फरवरी 2019 में आयोजित ‘नशा नहीं रोज़गार दो’ आंदोलन की पैंतीसवी वर्षगाँठ पर एक गोष्ठी। उत्तराखण्ड कई सामजिक आन्दोलनों की भूमि रही है – कुली-बेगार प्रथा के विरोध में, चिपको आंदोलन, नशाबंदी आंदोलन और बाँध विरोधी आंदोलन। फोटो- लेखिका
Thirty-fifth anniversary convention of the Nasha Nahin Rozgar Do (Give us employment, not intoxication) movement in Uttarakhand in February 2019. Uttarakhand has been a site for various social movements including the abolition of forced labour conscription, the Chipko movement, movement for prohibition and anti-dam movement. Photo by author.
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DOI: https://doi.org/10.51142/issues-journal-2-1-1